सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की प्रस्तावना में “समाजवादी” और “धर्मनिरपेक्ष” शब्दों को शामिल करने को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला शुक्रवार को सुरक्षित रख लिया।
मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति संजय कुमार की पीठ ने पूर्व राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी, वकील विष्णु शंकर जैन और अश्विनी कुमार उपाध्याय की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए कहा कि इस मामले में 25 नवंबर को आदेश सुनाया जाएगा।
सुनवाई के दौरान, पीठ ने कहा कि 1976 में संविधान में “समाजवादी”, “धर्मनिरपेक्ष” और “अखंडता” शब्दों को जोड़ने वाले 42वें संशोधन की न्यायिक समीक्षा हो चुकी है। पीठ ने कहा, “हम यह नहीं कह सकते कि आपातकाल के दौरान संसद ने जो कुछ भी किया वह सब गलत था।”
‘भारतीय संदर्भ में समाजवाद का मतलब कल्याणकारी राज्य’
पीठ ने मामले को बड़ी पीठ को भेजने से इनकार करते हुए कहा कि भारतीय संदर्भ में “समाजवादी” होने का मतलब “कल्याणकारी राज्य” होता है।
न्यायमूर्ति खन्ना ने कहा, “दुनिया भर में समाजवाद शब्द का इस्तेमाल अलग-अलग संदर्भों में किया जाता है। भारत में इसका मतलब है कि राज्य एक कल्याणकारी राज्य है और उसे लोगों के कल्याण के लिए खड़ा होना चाहिए और अवसर की समानता प्रदान करनी चाहिए।”
‘धर्मनिरपेक्षता संविधान की मूल संरचना का हिस्सा’
पीठ ने कहा कि 1994 के एसआर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने “धर्मनिरपेक्षता” को संविधान की मूल संरचना का हिस्सा माना था।
याचिकाकर्ता की दलीलें
वकील जैन ने कहा कि हाल ही में नौ-न्यायाधीशों की संविधान पीठ के फैसले में, बहुमत ने पूर्व न्यायाधीशों वीआर कृष्ण अय्यर और ओ चिन्नप्पा रेड्डी द्वारा “समाजवादी” शब्द की व्याख्या पर संदेह जताया था।
एक अन्य याचिकाकर्ता, वकील अश्विनी उपाध्याय ने कहा कि वह “समाजवाद” और “धर्मनिरपेक्षता” की अवधारणाओं के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन प्रस्तावना में उन्हें शामिल किए जाने का विरोध करते हैं।
अदालत का रुख
पीठ ने कहा कि अनुच्छेद 368 संसद को संविधान में संशोधन करने की शक्ति देता है और यह प्रस्तावना तक भी लागू होता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि वह इस दलील पर नहीं जाएगी कि 1976 में लोकसभा संविधान में संशोधन नहीं कर सकती थी और प्रस्तावना में संशोधन करना एक संविधान सभा द्वारा प्रयोग की जाने वाली संविधानिक शक्ति थी।
अब देखना होगा कि 25 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट इस मामले में क्या फैसला सुनाता है।