जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुप्रीम कोर्ट में संविधान दिवस कार्यक्रम में भाग लिया, तो उनकी बातें संविधान के महत्व और भारत के विकास को रेखांकित करती दिखीं। लेकिन, उनकी इस विस्तृत टिप्पणी में कई ऐसे पहलू थे, जो गहराई से सोचने को मजबूर करते हैं। क्या यह वाकई संविधान के प्रति प्रतिबद्धता का प्रदर्शन था, या फिर यह सरकार की उपलब्धियों की सूची पेश करने का एक और मंच बन गया?
संविधान की व्याख्या या सरकार की वाहवाही?
पीएम मोदी ने अपने संबोधन में भारतीय संविधान को “जीवंत दस्तावेज़” बताया, जो हर चुनौती के साथ विकसित होता है। यह बात अपनी जगह सही है कि हमारा संविधान लचीलापन और व्यापक दृष्टिकोण रखता है। लेकिन, जब प्रधानमंत्री इसे ‘विकसित भारत’ की परिकल्पना से जोड़ते हैं, तो यह सवाल उठता है कि क्या सरकार वाकई संवैधानिक आदर्शों को प्राथमिकता दे रही है या इन्हें अपने एजेंडे के मुताबिक परिभाषित कर रही है?
संविधान को लेकर इस भाषण में ‘आपातकाल’ का जिक्र करना और जम्मू-कश्मीर में संविधान लागू होने को उपलब्धि बताना, दोनों बातें राजनीतिक रंग देती हैं। ये मुद्दे विचारणीय हैं, लेकिन इन्हें संविधान दिवस जैसे मौके पर उछालना, क्या इसका सही मंच था?
आंकड़ों का मायाजाल या जमीनी हकीकत?
प्रधानमंत्री ने विभिन्न सरकारी योजनाओं की उपलब्धियां गिनाईं—बैंक खाते, गैस कनेक्शन, जल आपूर्ति, डिजिटल लाइफ सर्टिफिकेट, और स्वास्थ्य योजनाएं। इन आंकड़ों को पेश करते वक्त यह जरूरी था कि उन समस्याओं पर भी चर्चा हो, जिनसे देश अभी भी जूझ रहा है।
- गैर-बराबरी: योजनाओं के लाभ सभी तक पहुंचे हैं, इसका कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया गया। कई रिपोर्ट्स में यह सामने आया है कि सरकारी योजनाएं गरीब और हाशिये पर खड़े वर्गों तक नहीं पहुंच रही हैं।
- न्याय व्यवस्था: ‘न्याय आधारित प्रणाली’ का जिक्र किया गया, लेकिन हमारे न्यायालयों में लाखों मामलों का लंबित होना एक गंभीर समस्या है।
संविधान दिवस पर आतंकवाद का जिक्र
प्रधानमंत्री ने मुंबई आतंकी हमलों का जिक्र कर शहीदों को श्रद्धांजलि दी। यह एक संवेदनशील विषय है और सही मंच पर इसकी चर्चा जरूरी भी थी। लेकिन इस मौके पर इसे संविधान से जोड़कर राजनीतिक बयानबाजी की तरह इस्तेमाल करना, इस कार्यक्रम की गरिमा को कम करता है।
संविधान के मूल्यों पर अमल जरूरी
प्रधानमंत्री ने मानव मूल्यों और भारतीय संस्कृति की बात की। यह महत्वपूर्ण है, लेकिन इसी संविधान ने हमें अभिव्यक्ति की आज़ादी, समानता और न्याय का अधिकार भी दिया है। क्या सरकार इन मूल्यों का पूरी तरह सम्मान कर रही है?
- अभिव्यक्ति की आज़ादी: हाल के वर्षों में पत्रकारों और एक्टिविस्ट्स पर हो रही कार्रवाई इस अधिकार पर सवाल खड़े करती है।
- धार्मिक स्वतंत्रता: भारतीय संस्कृति की झलक दिखाने वाले संविधान में सभी धर्मों को समान माना गया है। लेकिन, बढ़ते ध्रुवीकरण और असहिष्णुता का क्या?
निष्कर्ष: आत्ममंथन की जरूरत
संविधान दिवस सरकार के कामकाज की तारीफ का मंच नहीं होना चाहिए, बल्कि यह दिन संविधान के मूल्यों पर अमल करने का आत्ममंथन करने का अवसर होना चाहिए। संविधान केवल एक दस्तावेज नहीं, बल्कि एक दिशा-निर्देश है, जो हमें समानता, स्वतंत्रता और न्याय की राह पर चलने को प्रेरित करता है।