
संयुक्त राष्ट्र महासभा में एक बार फिर गाज़ा में तत्काल और स्थायी संघर्षविराम की मांग करते प्रस्ताव को भारत ने समर्थन देने से परहेज़ किया है। यह चौथी बार है जब मोदी सरकार ने इस प्रकार के प्रस्ताव से दूरी बनाई है, जबकि 149 देशों ने इसके पक्ष में मतदान किया। भारत सहित केवल 19 देशों ने मतदान से दूरी बनाई, जिनमें अमेरिका और इज़राइल जैसे विरोधी 12 देशों ने इसके खिलाफ वोट दिया।
ग़ौरतलब है कि दिसंबर 2024 में भारत ने इसी तरह के संघर्षविराम प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया था, जो अब की स्थिति की तुलना में एक अहम नीतिगत बदलाव को दर्शाता है। तब और अब के भारत के रुख में फर्क स्पष्ट है।
भारत के स्थायी प्रतिनिधि परवथानेनी हरीश ने UN में अपनी बात रखते हुए कहा कि भारत गाज़ा में मानवीय संकट से गहराई से चिंतित है, लेकिन उसका मानना है कि केवल बातचीत और कूटनीति से ही ऐसे संघर्षों का समाधान संभव है। उन्होंने कहा, “हमारा प्रयास दोनों पक्षों को बातचीत की मेज़ पर लाने पर केंद्रित होना चाहिए। शत्रुता और आरोप-प्रत्यारोप शांति की राह में बाधक हैं।”
संयुक्त राष्ट्र महासभा में यह प्रस्ताव स्पेन द्वारा पेश किया गया था, जिसे भारी बहुमत से पारित किया गया। प्रस्ताव में इस्राइल और हमास दोनों से अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानूनों के पालन, गाज़ा में निर्बाध और शीघ्र राहत पहुंचाने, और शेष बंधकों की रिहाई की मांग की गई थी। अमेरिका ने प्रस्ताव की आलोचना करते हुए कहा कि इसमें हमास की आलोचना पर्याप्त रूप से नहीं की गई है।
भारत के इस निर्णय की पृष्ठभूमि में एक और अहम बात यह है कि हाल ही में भारत ने पाकिस्तान के साथ सैन्य टकराव के दौरान इज़राइली ड्रोन्स और एयर डिफेंस सिस्टम का इस्तेमाल किया, जिससे दोनों देशों के सामरिक रिश्तों की अहमियत और गहराई स्पष्ट होती है।
इस बीच, सभी की निगाहें 17 जून से शुरू हो रहे फ्रांस-सऊदी अरब सम्मेलन पर टिकी हैं, जिसमें “टू-स्टेट सॉल्यूशन” यानी इज़राइल और फलस्तीन के लिए दो स्वतंत्र राष्ट्रों की योजना पर चर्चा होगी। फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने इशारा किया है कि फ्रांस जून में फलस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में औपचारिक रूप से मान्यता दे सकता है।
भारत ने फलस्तीन को पहले ही 1988 में मान्यता दी थी और संयुक्त राष्ट्र के 193 में से 146 देश अब तक फलस्तीन को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में मान्यता दे चुके हैं। ऐसे में भारत की तटस्थता और संतुलन बनाए रखने की कोशिश कूटनीतिक दृष्टिकोण से समझ में आती है, लेकिन यह जरूर सवाल उठाता है कि क्या मानवीय संकट के सामने यह चुप्पी उचित है?