
भारत के सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार (20 मई) को साफ शब्दों में कहा कि “भारत कोई धर्मशाला नहीं है जहाँ पूरी दुनिया के शरणार्थियों को जगह दी जा सके।” यह टिप्पणी उस समय आई जब अदालत एक श्रीलंकाई तमिल नागरिक की याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जो भारत में शरण की मांग कर रहा था।
याचिकाकर्ता सुबासकरण, जिसे 2015 में आतंकवाद निरोधक कानून UAPA के तहत गिरफ्तार किया गया था, 2022 में सात साल की सजा पूरी कर चुका है। फिलहाल वह तमिलनाडु के तिरुचिरापल्ली में एक डिटेंशन कैंप में बंद है और भारत से निर्वासन की प्रक्रिया का सामना कर रहा है।
“यहां रुकने का कोई संवैधानिक अधिकार नहीं”
न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति विनोद के चंद्रन की पीठ ने स्पष्ट किया कि भारत में रहने का मौलिक अधिकार केवल नागरिकों को है। अदालत ने कहा, “भारत पहले ही 1.4 अरब की आबादी से जूझ रहा है। हम कोई धर्मशाला नहीं हैं जो हर विदेशी को जगह दें। आप अगर श्रीलंका नहीं जाना चाहते तो किसी और देश चले जाएं।”
अदालत ने यह भी जोड़ा कि अनुच्छेद 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) की सुरक्षा विदेशी नागरिकों को तभी मिलती है जब कार्रवाई संविधानिक प्रक्रिया के अनुसार न हो। लेकिन इस मामले में सजा न्यायिक प्रक्रिया के तहत दी गई है, और अब रिहा होने के बाद संबंधित हाई कोर्ट ने निर्वासन का स्पष्ट निर्देश दिया है।
हाई कोर्ट के आदेश को दी चुनौती
सुबासकरण ने 21 जून 2022 को मद्रास हाई कोर्ट द्वारा दिए गए उस आदेश को चुनौती दी थी, जिसमें उसकी सजा को 10 साल से घटाकर 7 साल किया गया था, साथ ही सजा पूरी होने के बाद तत्काल देश छोड़ने का आदेश दिया गया था। हाई कोर्ट ने यह भी कहा था कि जब तक निर्वासन की प्रक्रिया पूरी नहीं होती, उसे डिटेंशन सेंटर में रखा जाएगा।
याचिका में सुबासकरण ने दावा किया था कि वह श्रीलंका में LTTE का सदस्य था और युद्ध के दौरान उसका परिवार तबाह हो गया। ऐसे में अगर वह लौटता है, तो उसकी जान को खतरा है। साथ ही, उसका परिवार (पत्नी और बच्चे) तमिलनाडु में रह रहे हैं।
“देश के अंदर रहने का अधिकार केवल नागरिकों को”
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 19(1)(e) के तहत भारत में बसने का अधिकार केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त है। अदालत ने यह भी कहा कि यह मामला रोहिंग्या शरणार्थियों के उस मामले से मेल खाता है जिसमें मई 2021 और हाल ही में 8 मई 2025 को भी सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए कहा था कि भारत में रहने का कोई स्वाभाविक अधिकार विदेशी नागरिकों को नहीं है।
“शरण का अधिकार कोई सार्वभौमिक अधिकार नहीं”
न्यायालय ने यह भी दोहराया कि शरण देना कोई संवैधानिक बाध्यता नहीं, बल्कि नीतिगत और कूटनीतिक निर्णय होता है, जिसमें सरकार की प्राथमिकता और सुरक्षा चिंताएं सर्वोपरि होती हैं।