हर गलती की कीमत चुकानी होगी: ट्रैफिक उल्लंघन पर पॉइंट आधारित सिस्टम का असली मतलब

कभी सोचा है कि अगर किसी की लापरवाही से किसी मासूम की जान चली जाए, तो क्या एक मामूली जुर्माना काफी है? शायद नहीं। शायद अब सरकार को भी यह बात महसूस होने लगी है — और इसीलिए सड़क परिवहन एवं राजमार्ग मंत्रालय (MoRTH) एक बड़ा बदलाव लाने की तैयारी में है।

जल्द ही भारत में एक पॉइंट-बेस्ड सिस्टम लागू किया जा सकता है, जिसमें ट्रैफिक नियमों का उल्लंघन करने पर ड्राइवर के लाइसेंस पर डिमेरिट पॉइंट्स जुड़ेंगे। और अगर ये पॉइंट्स ज्यादा हो गए, तो लाइसेंस सस्पेंड या रद्द भी हो सकता है। यह सिस्टम यूएस, जर्मनी और कनाडा जैसे देशों में पहले से ही सफलतापूर्वक चल रहा है। अब भारत भी उसी दिशा में कदम बढ़ा रहा है।

मैंने यह खबर टाइम्स ऑफ इंडिया और कई अन्य स्रोतों पर पढ़ी थी, और एक बात तो साफ़ है — सरकार अब केवल जुर्माने से संतुष्ट नहीं है। वह व्यवहार में बदलाव चाहती है। एक जिम्मेदार ड्राइवर को सिर्फ दंडित नहीं, बल्कि प्रोत्साहित भी किया जाएगा। यानी, जो सड़क पर सजगता और संवेदनशीलता दिखाएगा, उसे मेरेट पॉइंट्स मिलेंगे। यह सोच, जहां दंड और पुरस्कार दोनों साथ-साथ चलें, काफी संतुलित प्रतीत होती है।

असल चुनौती अब इन्फ्रास्ट्रक्चर की है। पिछली बार 2011 में जब ऐसा सिस्टम प्रस्तावित किया गया था, तो तकनीकी कमी के कारण यह ज़मीन पर नहीं उतर सका। लेकिन अब चीजें बदल चुकी हैं। डिजिटल चालान सिस्टम, कैमरों की निगरानी, और हैंडहेल्ड डिवाइसेज़ के जरिए रीयल-टाइम ट्रैकिंग अब मुमकिन है।

लेकिन सवाल यह भी है कि क्या जनता भी इसके लिए तैयार है? भारत में “थोड़ा तो चलता है” वाली मानसिकता ने हमेशा नियमों को हल्के में लेने की आदत डाली है। ये नया सिस्टम उस सोच को चुनौती देता है। अब अगर आप लगातार रेड लाइट जम्प करते हैं या खतरनाक ड्राइविंग करते हैं, तो तीन उल्लंघनों के बाद आपका लाइसेंस तीन महीने के लिए सस्पेंड हो सकता है। और अगर पेंडिंग ई-चालान तीन महीने तक नहीं भरे गए, तो भी ड्राइविंग राइट्स पर रोक लग सकती है।

एक और ज़रूरी बात यह कि अगर आपने बार-बार नियम तोड़े हैं, तो लाइसेंस रिन्यू करवाने के लिए फिर से ड्राइविंग टेस्ट देना पड़ेगा। अब यह सिर्फ़ फॉर्मेलिटी नहीं रहेगी, बल्कि एक असल स्क्रीनिंग प्रोसेस होगा।

यह कदम सिर्फ कानून लागू करने के लिए नहीं है — यह उन 1.7 लाख ज़िंदगियों की तरफ एक जवाब है जो हर साल सड़कों पर खत्म हो जाती हैं। यह उन परिवारों के लिए भी उम्मीद है जिन्होंने अपने प्रियजनों को किसी की लापरवाही के कारण खोया है।

अगर यह सिस्टम ईमानदारी से लागू किया जाए, और ट्रैफिक पुलिस की कार्यशैली में पारदर्शिता आए, तो यह भारत की सड़कों पर एक बड़े बदलाव की शुरुआत हो सकती है। लेकिन साथ ही, यह समाज की भी परीक्षा है — क्या हम नियमों को अपनी सुविधा से ऊपर रख सकते हैं?

अगर हम चाहते हैं कि हमारी सड़कें सुरक्षित हों, तो यह बदलाव स्वीकारना ही होगा — न सिर्फ कागज़ पर, बल्कि सोच में भी।

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