
ऑस्ट्रेलिया में हर पाँच में से एक पुरुष को जीवन के किसी न किसी मोड़ पर एंग्जायटी यानी चिंता की समस्या होती है, लेकिन यह समस्या आज भी गहराई से गलत समझी जाती है, सामाजिक कलंक से घिरी हुई है और अक्सर बिना पहचाने ही रह जाती है। महिलाओं की तुलना में पुरुषों में चिंता के मामलों का निदान लगभग आधा ही होता है। वजहें कई हैं – भावनाएं छुपाने का दबाव, “मर्दानगी” की अपेक्षाएं और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी भाषा की समझ का अभाव।
हालिया शोध में एक परेशान करने वाली सच्चाई सामने आई है – जब चिंता असहनीय हो जाती है, तब युवा पुरुष एम्बुलेंस को कॉल करते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि उन्हें दिल का दौरा पड़ रहा है। यानी, जब चीजें हाथ से निकल जाती हैं, तब वे मदद मांगते हैं – न कि तब जब वो वाकई में मिल सकती है।
इस अध्ययन में विक्टोरिया (ऑस्ट्रेलिया) के 15 से 25 वर्ष के 694 पुरुषों की एम्बुलेंस कॉल्स की रिपोर्ट्स का विश्लेषण किया गया, ताकि यह समझा जा सके कि कौन सी परिस्थितियाँ उन्हें इमरजेंसी कॉल करने पर मजबूर करती हैं।
बचपन से सिखाई जाती है भावनाओं की चुप्पी

लड़कों को बचपन से सिखाया जाता है कि डर से लड़ना मर्दानगी है, और भावनात्मक कमजोरी दिखाना “कमजोर” होना है। जब माता-पिता उन्हें डर से जूझने की सलाह देते हैं, लेकिन भावनात्मक सहारा नहीं देते, तो चिंता को कमजोरी से जोड़ दिया जाता है। इससे यह धारणा बनती है कि “मर्द” परेशान नहीं होते – और अगर होते भी हैं, तो चुप रहते हैं।
इस कारण, कई युवा पुरुष समझ ही नहीं पाते कि जो वे महसूस कर रहे हैं वो चिंता है। और जब तक उन्हें एहसास होता है, तब तक हालत बिगड़ चुकी होती है – और अक्सर एम्बुलेंस बुलानी पड़ती है।
चिंता के तीन आम रूप
शोध में सामने आया कि पुरुषों द्वारा की गई चिंता से जुड़ी एम्बुलेंस कॉल्स में तीन पैटर्न दिखे:
1. शारीरिक लक्षणों की तीव्रता – जैसे दिल की धड़कन तेज़ होना, सांस फूलना, शरीर में अकड़न। ये लक्षण इतने तीव्र होते हैं कि व्यक्ति को लगता है कि उसे दिल का दौरा पड़ रहा है। जैसे कि 22 वर्षीय जोशुआ, जिसे ट्राम में अचानक हाथ-पैर सुन्न हो गए और मांसपेशियों में ऐंठन शुरू हो गई।
2. नशे से जुड़ी चिंता – जैसे 21 वर्षीय एडम, जिसने काम पर घबराहट के बाद वैलियम (diazepam) की ज़्यादा मात्रा ले ली और तब भी राहत न मिलने पर एम्बुलेंस को कॉल किया।
3. मानसिक गिरावट और आत्महत्या के विचार – जैसे 25 वर्षीय लियो, जो तीन दिन से चिंता में था और जब उसने आत्महत्या की बात की तो उसके माता-पिता ने एम्बुलेंस बुलाई।
क्या करें, जब मदद पहुंच ही नहीं पाती?
जब एम्बुलेंस कर्मी पहुंचते हैं, तो सबसे पहले शारीरिक बीमारी की संभावना को खारिज करते हैं। लेकिन मानसिक स्वास्थ्य के लिए उनके पास सीमित साधन होते हैं – कुछ शांत करने की तकनीकें, और सुझाव कि GP या मनोवैज्ञानिक से संपर्क करें।
लेकिन असली समस्या यहीं शुरू होती है – युवा पुरुषों के लिए यह कदम उठाना कठिन होता है। शर्म, सामाजिक कलंक, और खुद को “कमज़ोर” महसूस करना उन्हें दोबारा चुप्पी की ओर धकेलता है। यही वजह है कि कई पुरुष बिना किसी फॉलो-अप के वापस उसी हालत में लौट जाते हैं – और अगली बार स्थिति और भी भयावह हो जाती है।
समाधान क्या है?
अब वक्त आ गया है कि पुरुषों की चिंता पर खुलकर बात की जाए, जैसे हमने पुरुषों के डिप्रेशन पर की है। इसके लिए जरूरी है:
- पुरुषों की चिंता को लेकर सार्वजनिक जागरूकता अभियान चलाना
- चिकित्सकों को प्रशिक्षित करना ताकि वे पुरुषों में चिंता के लक्षणों को सही पहचान सकें
- डिजिटल एजुकेशन टूल्स के माध्यम से शुरुआती मदद को आसान और सुलभ बनाना
चिंता कोई कमजोरी नहीं, बल्कि एक मानसिक स्वास्थ्य चुनौती है – जो पुरुषों को भी उतनी ही गहराई से प्रभावित करती है जितनी महिलाओं को। फर्क सिर्फ इतना है कि वे अक्सर देर से बोलते हैं – और कई बार तब जब सिर्फ सुनना काफी नहीं होता।

